काव्य दोष
दोष शब्द का सामान्य अर्थ गलती, भूल, त्रुटि, रोग और हानि आदि है। काव्य में दूसरों को लेकर अनेक आचार्यों ने अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं भरतमुनि ने दोषों की परिभाषा तो नहीं दी है परंतु गुण की परिभाषा में दोषों का विपर्यय या अभाव गुण बताया है।
इस प्रकार भरतमुनि की मान्यता के अनुसार काव्य में गुणों का अभाव दोष होता है
इसी प्रकार साहित्य दर्पण में आचार्य विश्वनाथ ने दोष उस तत्व को बताया है जो मुख्य अर्थ का अपकर्ष अर्थात् रस की हानि करता है।
काव्य में रस की हानि तीन प्रकार की होती है रस की अनुभूति(प्रतीति) में विलंब के द्वारा दूसरी रस के अवरोध द्वारा तीसरी रस अनुभूति में विघ्न के द्वारा।
आचार्य मम्मट- काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मट ने दोष की परिभाषा सबसे स्पष्ट रूप में दी है-
मुख्यार्थ हतिर्दोषो रसश्च मुख्य तदाश्रयाद् वाच्य:।
(काव्य में जिस से मुख्य अर्थ का अपकर्ष होता है वह दोष है। काव्य में रस मुख्य होता है, पर रस के आश्रय से वाच्यार्थ भी मुख्य ही होता है।)
शब्द रस तथा वाच्यार्थ आधार होते हैं अत: काव्य दोषों की स्थिति रस, शब्द और अर्थ तीनों में होती है।
काव्य दोष कितने होते हैं
काव्य दोषों की संख्या
काव्य दोषों की संख्या के विषय में आचार्य में मतभेद रहे हैं भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में दूसरों की संख्या 10 मानी है तथा आचार्य भामह ने दूसरों की संख्या 11 मानी है और दंडी ने काव्य दोष10 बताए हैं आचार्य मम्मट के समय दोषों की संख्या 60 से भी अधिक थी।
तथा आचार्य वामन ने काव्य दूसरों का वैज्ञानिक रूप से वर्गीकरण करते हुए 4 वर्ग बताए हैं-
- शब्दगत दोष
- अर्थगत दोष
- रसगत दोष
- पदगत दोष
आचार्य मम्मट ने भी दूसरों को 4 वर्गों में विभाजित किया है परंतु दोषों के नाम भिन्न बताये हैं-
- पदगत दोष
- वाक्यगत दोष
- अर्थगत दोष
- रसगत दोष
कुलपति मिश्र तथा चिंतामणि आदि रीतिकालीन आचार्य ने पद और वाक्य का समावेश शब्द में करते हुए दूसरों के 3 वर्ग स्वीकार किए हैं-
- शब्दगत दोष
- अर्थगत दोष
- रसगत दोष
काव्य में दोषों का प्रभाव- निश्चय ही दोष काव्य पर व्यापक प्रभाव डालते हैं इसी कारण आचार्य दंडी ने दोषों को त्याज्य माना है, क्योंकि इनसे काव्य में विकृतियां प्राप्त होती हैं। अग्नि पुराण के रचनाकार निर्दोषों को उद्वेग जनक (बेचैनी) पैदा करने वाला बताया है। आचार्य बामन के अनुसार दोषों के कारण काव्य की हानि होती है। मम्मट ने दोषों के कारण मुख्य अर्थ रसायनुभूति में बाधा पडना स्वीकार किया है।
रसवादी आचार्य विश्वनाथ भी दोषों को रसायनुभूति में बाधक मानते हैं रीतिकाल के प्रवर्तक आचार्य केशवदास ने तो दोषयुक्त काव्य को हेय अर्थात त्याज्य बताया है। डॉ. रामदास भारद्वाज दूसरों के कारण रसास्वादन में अवरोधन काव्य उत्कर्ष का नाश तथा काव्य स्वाद में विलंब स्वीकार करते है।
काव्य दोषों का मूल कारण क्या है
भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र नामक ग्रंथ के रचनाकार डॉक्टर त्रिलोकी नाथ श्रीवास्तव ने दूसरों के मूल कारण की अवधारणा इन शब्दों में व्यक्त की है।
डॉ नगेंद्र के अनुसार औचित्य का व्यतिक्रम ही समस्त दोषों का कारण है इनके अनुसार "औचित्य का अर्थ है सहज स्थिति या सामान्य व्यवस्था। इसका उत्कर्ष गुण है तथा इसका अपकर्ष दोष है"
प्रमुख काव्य दूसरों के लक्षण एवं उदाहरण
शब्द दोष के प्रकार-
श्रुतिकटुत्व दोष- इसका अर्थ है कानों को कटु लगने वाले कठोर वर्णों का प्रयोग। काव्य में करण कटु वर्णों के प्रयोग के कारण यह दोष उत्पन्न होता है करण कटु शब्द श्रंगार वात्सल्य आदि कोमल रसों में ही रस अनुभूति के लिए घातक होते हैं, वहीं दूसरी ओर वीर रस, रौद्र रस, वीभत्स रस और भयानक रस आदि में ये कर्णकटु शब्द उनके गुण बन जाते हैं।
जैसे-
कवि के कठिनतर कर्म की कहते नहीं हम धृष्टता।
पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता ।।
यहां कठिनता, धृष्टता, विषयोत्कृष्टता, विचारोत्कृष्टता जैसे शब्द कानों को कटु लगने वाले शब्द हैं इस कारण यह श्रुतिकटुत्व दोष को उत्पन्न करते हैं।
सब जात फटी दुख की दुपटी-कपटी न रहे जहां एक घटी।
निघटी रुचि मीच घटीहू घटी जगजीव जतीन की छूटी तटी।
अघ ओघ की बेड़ी कटी विकटी प्रगटी निकटी गुरु ज्ञान गटी।
चहुं ओरन नाचति मुक्ति नटी गुन घूरजटी वन पंचवटी।
इस उदाहरण में भी प्रकृति का वर्णन श्रंगार रस का विषय है परंतु इसमें श्रुति कर दो तवरण की बार-बार आवृत्ति से श्रुतिकटुत्व दोष आ गया है।
अन्य उदाहरण
कटर-कटर तण्डुल चबात हरि हंसि-हंसि के।
हियरा चटकात हरि रुकमिन महारानी के।।
यहां 'कटर-कटर' और 'हियरा चटकात' में श्रुतिकटुत्व दोष है।
2- च्युत संस्कृति दोष- संस्कृति शब्द का अर्थ है संस्कार और भाषा में संस्कार व्याकरण से आता है। जहां काव्य में भाषा अथवा व्याकरण के नियमों के विरुद्ध शब्द अथवा पदों का प्रयोग किया जाता है। वहां च्युत संस्कृति दोष होता है।
गत जब रजनी हो पूर्व संध्या बनी हो,
उडुगण क्षय भी हों दीखते भी कहीं हो।
मृदुल मधुर निद्रा चाहता चित्त मेरा,
तब पिक करती तू शब्द प्रारंभ 'तेरा'
यहां 'तेरा' शब्द अशुद्ध होने के कारण होने से च्युतसंस्कृति दोष है।
इसी प्रकार अन्य उदाहरण-
पुष्पों की लावण्यता देती है आनन्द।इस उदाहरण में लवण शब्द से भाववाचक ष्यञ् प्रत्यय होने से लावण्य शब्द बनता है जिसका अर्थ है सुंदरता। इससे भाववाचक ता प्रत्यय करना व्याकरण के नियम के विरुद्ध होने से 'च्युतसंस्कृति दोष' है।
ग्रामत्व दोष- साहित्य में जहां ग्रामीण लोगों में प्रचलित गंवारू शब्दों का प्रयोग किया जाता है। वहां ग्रामत्व दोष होता है। काव्य से आनंद उठाने वाले लोग शिक्षित एवं सुसंस्कृत होते हैं गंवारु शब्दों का प्रयोग उन्हें अरुचिकर लगता है जैसे-
सृष्टि के आरंभ में मैंने उषा के गाल चूमे।
यहां 'गाल' शब्द गॅंवारू होने से ग्रामत्व दोष है।
अन्य उदाहरण-
मूड पै मुकुट धरे सोहत हैं गोपाल।
यहॉं पर शीश के लिए 'मूड़' शब्द का प्रयोग गंवारू होने से ग्रामत्व दोष है।
क्लिष्टत्व दोष- क्लिष्टत्व शब्द का अर्थ है कठिन अथवा दुर्बोध होना । काव्य में जहां सरल एवं सुबोध शब्दों का प्रयोग ना करके कठिन और दुर्बोध शब्दों का प्रयोग किया जाता है वहां क्लिष्टतत्व दोष होता है।
कहत कत परदेशी की बात।
मन्दिर अरध अवधि हरि बदि गये हरि अहार चलि
नखत वेद ग्रह जोरि अरधकरि को बरजै हम खात।
"इस उदाहरण में 'मंदिर अरध' का आशय घर का आधा पाख या पक्ष अथवा भाग है, और और महीने का आधा भाग भी है इसी तरह 'हरि-अहार' का आशय सिंह का भोजन मांस अर्थात मास है। 27 नखत(नक्षत्र) 4 वेद, एवं 9 ग्रह को जोड़ने पर 40 होते हैं और 40 के आधे 20 होते हैं। बीस से आशय विष अर्थात जहर है इन शब्दों का अर्थ सहज सुबोध नहीं है और यह अर्थ बहुत मुश्किल से समझ में आता है इसीलिए यहां पर क्लिष्टत्व दोष है।
अन्य उदाहरण-
मन्दोदरि पति को जो भ्राता तासु प्रिया नंहि आवति।
इसका आशय यह है- नींद नहीं आती है। इसके लिए मंदोदरी रावण की पत्नी। मंदोदरी का पति रावण। रावण का भ्राता कुंभकरण। कुंभकरण की प्रिया नींद, क्योंकि कुंभकरण 6 महीने सोता था और एक दिन जागता था। नींद के लिए मंदोदरि को भ्राता तासु प्रिया' का प्रयोग किया गया है इसका अर्थ बड़ी कठिनाई से तथा देर में समझ में आता है इसलिए यहां क्लिष्टत्व दोष है।
अप्रतीतत्व दोष- जो शब्द किसी अर्थ विशेष में कोर्स अथवा अन्य ग्रंथों में अथवा विषय में सुरक्षित है, सर लोक में उस अर्थ में उसका व्यवहार या प्रयोग न होता हो। लोक में प्रचलित अर्थ में किसी शब्द का प्रयोग काव्य में करना है अप्रतीतत्व दोष कहलाता है। जैसे-
विषमय यह गोदावरी अमृतन को फल देत।इस उदाहरण में आचार्य केशवदास ने विष एवं जीवन शब्दों का प्रयोग जल के अर्थ में किया है कुश के अनुसार इन दोनों शब्दों का अर्थ जल होता है, परंतु लोक व्यवहार में यह शब्द इस अर्थ में प्राकृत नहीं है। इस लोक में विष का अर्थ जहर तथा जीवन का अर्थ जिंदगी के रूप में प्रचलित है इसीलिए इस उदाहरण में अप्रतीतत्व दोष है।
केशव जीवन हार को दुख अशेष हरिलेत।।
अन्य उदाहरण-
मानिक के पीछे दौड़ दौड़ कर हम संसारी खिन्न।लोक व्यवहार में 'आशय' से शब्द का अर्थ 'तात्पर्य' होता है परंतु इस उदाहरण में 'आशय' शब्द का प्रयोग 'मन की चंचलता' के लिए हुआ है। 'आशय' शब्द का यह अर्थ केवल योग दर्शन में ही प्रचलित हुआ है। लोक व्यवहार में बिल्कुल नहीं इसीलिए इस उदाहरण में भी अप्रतीतत्व दोष है
आशय दलित योग से करके मुनिजन परम प्रसन्न।।
न्यून पदत्व दोष- काव्य में अपनी ओर से एक शब्द अथवा अधिक शब्दों का प्रयोग करके वांछित अर्थ को प्राप्त किया जाता हो वहां न्यून पदत्व दोष होता है या जहां काव्य में अपनी ओर से कोई एक शब्द जोड़कर ही किसी वाक्य या पद का पूर्ण अर्थ प्राप्त होता हो वहां न्यून पद दोष होता है।
जैसे-
आज आगमन से हुए धन्य हमारे भाग्य।
इस पंक्ति का अर्थ है आज आपके आगमन से हमारे भाग्य धन्य हो गए हैं यहां आपके शब्द अपनी तरफ से जोड़कर वांछित अर्थ को प्राप्त किया गया है इसीलिए इसमें न्यून पद दोष है।
अन्य उदाहरण
कृपा दृष्टि करती सदा पतितों का उद्धार।
इसका वंचित अर्थ प्राप्त करने के लिए पाठकों को प्रभु या ईश्वर शब्द जोड़कर वांछित अर्थ को प्राप्त किया जाएगा अतः इसमें ईश्वर शब्द या प्रभु शब्द अपनी तरफ से जोड़ा गया है।
अधिक पदत्व दोष- काव्य में जहां एक या अधिक ऐसे शब्दों का प्रयोग हो जिन को निकाल देने पर अर्थ में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती अथवा अर्थ में कोई अंतर नहीं आता वहां अधिक पद दोष होता है।
"प्रथम पुत्र अर्जुन ने रण में किए पराजित शत्रु सभी"
इस पंक्ति में प्रथा पुत्र शब्द निकाल देने से अर्थ में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती इसीलिए यहां अधिक पदत्व दोष है।
इसी प्रकार अन्य उदाहरण
"लिपटे पुष्प पराग से सने कुसुम मकरंद"
इस पंक्ति में पुष्प और कुसुम शब्दों को निकाल देने से अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता क्योंकि पराग और मकरंद फूलों का ही होता है। पुष्प और कुसुम शब्दों फूलों के पर्यायवाची शब्द हैं।
अक्रमत्व दोष- जब काव्य में शब्दों का प्रयोग उचित क्रम से ना हो तो वहां 'अक्रमत्व दोष' होता है।
जैसे- अब तो मिलते नहीं वीर जन अर्जुन-भीम सामान के।
यहां शब्दों का उचित क्रम 'अर्जुन भीम के समान' होना चाहिए परंतु इस पंक्ति में ऐसा नहीं है इसीलिए इस पंक्ति में अक्रमत्व दोष है।
अन्य उदाहरण
थी करुणा प्रभु ने जब-जब की तभी पतित उद्धार हुआ।
यहां शब्दों का क्रम जब जब प्रभु ने करुणा की थी होना चाहिए था लेकिन ऐसा न होने के कारण इस पंक्ति में भी 'अक्रमत्व दोष' है।
अर्थ दोष के प्रकार
अर्थ दोष- श्रोता अथवा पाठक को काव्य का आनंद शब्दों का अर्थ समझने पर ही मिलता है। परंतु यहां श्रोता या पाठकों को अर्थ को समझने में कठिनाई पड़े वहां अर्थ दोष माना जाता है। प्रमुख अर्थ दोष निम्नलिखित हैं-
दुष्क्रमत्व दोष- जब काव्य में शब्दों का प्रयोग लोक अथवा शास्त्र में प्रसिद्ध क्रम के विरुद्ध किया जाता है वहां दुष्क्रमत्व दोष होता है।
मारुत नंदन मारुत को, मन को खगराज को वेग लजायो।
लुक और शास्त्र दोनों के अनुसार सबसे तीव्र वेग मन का है इसीलिए मनु को प्रथम स्थान पर रखना चाहिए था इस कारण यहां पर दुष्क्रमत्व दोष है।
अन्य उदाहरण
नृप मोको हय दीजिए अथ्वा मत्त गजेन्द्र।
इस उदाहरण में भी दुष्क्रमत्व दोष है क्योंकि हय(घोडा) की अपेक्षा गज अधिक मूल्यवान होता है जो व्यक्ति घोड़ा नहीं दे सकता वह गज अर्थात हाथी कैसे दे सकता है? यहां लोग प्रसिद्ध क्रम के अनुसार 'गजेंद्र' शब्द का प्रयोग 'हय' से पहले होना चाहिए। यह क्रम में ना होने के कारण दुष्क्रमत्व दोष है।
प्रसिद्धि-विरुद्ध दोष- यह काव्य में लोक की प्रसिद्धि के विरुद्ध कोई वर्णन किया जाए अर्थात जो प्राणी अथवा वस्तु किस बात के लिए प्रसिद्ध है उसके विरुद्ध उसका वर्णन हो तो वहां प्रसिद्धि-विरुद्ध दोष उत्पन्न हो जाता है। जैसे-
माधव दौड़े ओर भीष्म की रण में धनुष-बाण धारे।
महाभारत के अनुसार श्री कृष्णा हाथ में रथ का पहिया लेकर भीष्म पितामह की तरफ दौड़े थे वैसे भी श्री कृष्ण धनुष बाण नहीं अपितु सुदर्शन चक्र धारण करते थे और महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण हाथ में शस्त्र धारण न करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे यहां उनके हाथ में धनुष बाण का वर्णन होने से प्रसिद्धि - विरुद्ध दोष है।
इसी प्रकार अन्य उदाहरण
भीमसेन ने खड़ग हाथ ले तोड़ी जांघ सुयोधन की।
महाभारत में भीम को गदाधारी बताया गया है लेकिन इस पंक्ति में भीम के हाथ में खड़ग यानी तलवार को बताया है। अतः यहां भी प्रसिद्धि - विरुद्ध दोष है।
पुनरुक्ति काव्य दोष-जब काव्य में किसी शब्द अथवा बाग के द्वारा वांछित अर्थ की प्राप्ति हो जाती है। वही उसी अर्थ वाले शब्द अथवा वाक्य का पुनः प्रयोग करना पुनरुक्ति दोष होता है।
अर्थात एक ही अर्थ को प्रकट करने वाले शब्द या वाक्य का दो या दो से अधिक बार प्रयोग करना पुनरुक्ति दोष कहलाता है। जैसे-
योद्धा रण में विजयी होते, वीर युद्ध में पाते जय।
इस उदाहरण में 'योद्धा रण में विजयी होते' से इच्छित अर्थ स्पष्ट हो रहा है। उसी को प्रकट करने के लिए 'वीर युद्ध में पाते जय' यह वाक्य का प्रयोग होने से पुनरुक्ति दोष है।
इसी प्रकार अन्य उदाहरण
मधुमेह वाक्य हृदय हर लेते,
मन को लूटें सरस वचन।
यहां पर भी 'मधुमय वाक्य ह्रदय हर लेते' काजू अर्थ है उसी अर्थ को प्रकट करने के लिए पुनः 'मन को लुटे सरस वचन' वाक्य का प्रयोग होने से पुनरुक्ति दोष है।
विद्या-विरुद्ध दोष- काव्य में जब शास्त्र की प्रसिद्धि के विरुद्ध वर्णन किया गया हो वहां विद्या विरुद्ध दोष होता है। जो चीज विशेष अर्थ के लिए प्रसिद्ध हो उसके विरुद्ध अगर काव्य में वर्णन किया जाता है तो उसे विद्या-विरुद्ध दोष कहा जाता है। जैसे-
श्वेत वस्त्र धारण किए करती है अभिसार।
अमा निशा में गौर वर्ण की बाला भली प्रकार।।
काम शास्त्र के अनुसार गौर वर्ण की नारी के पूर्णिमा की चांदनी में श्वेत वस्त्र पहन कर अभिसार करने का वर्णन है। यहां उसका अभिसार अमावस की रात्रि में वर्णित होने के कारण विद्या विरुद्ध दोष है।
रस दोष के प्रकार
रस दोष- डॉक्टर शंभू नाथ पांडेय ने काव्य में रस दोष होने का उल्लेख अपनी पुस्तक 'रस अलंकार पिंगल' में किया है । "जिस काव्य में व्यंजना शब्द शक्ति से रसानुभूति होती है। उस काव्य को उत्तम माना जाता है। इसीलिए काव्य में रस के उपादान कारण अनुभव, संचारी भाव, स्थाई भाव आदि व्यंग रूप में ही होने चाहिए। काव्य में इनका स्पष्ट वर्णन नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि स्पष्ट वर्णन होने से रस की अनुभूति में बाधा आती है। रस की अनुभूति में रस से संबंधित यदि कोई बाधा डालता है तो वह कारक रस दोष माना जाता है।"
प्रमुख रस दोष निम्नलिखित हैं-
स्व-शब्द वाच्यत्व रस दोष- काव्य में जहां विभाव, संचारी भाव, अनुभाव स्थायीभाव अथवा रस का नाम लेकर वर्णन किया जाए जो रस काव्य में हो तो वहां स्व-शब्द वाच्यत्व आ जाता है। अर्थात जसरासर का वर्णन किया जा रहा है उसी का काव्य में नाम भी प्रयुक्त कर दिया जाए तो स्व-शब्द वाच्यत्व दोष होता है।
जैसे-
मुख सूखहि लोचन स्रवहिं सोक न हृदय समाय।
मनहुं करुण रस कटक लै उतरा अवध वजाय।।
उपरोक्त उदाहरण में करुण रस से है। परंतु यहां करुण शब्द का प्रयोग होने से स्व-शब्द वाच्यत्व तत्व दोष है
अकाण्ड-छेदन दोष- जब किसी काव्य रचना में किसी रस की परिपक्वता से पहले ही उस रस को समाप्त कर दिया जाए अर्थात् उस प्रसंग को समाप्त कर दिया जाए या जो रस चल रहा है एकदम से उसका विरोधी रस प्रयुक्त कर दिया जाए तो वहां अकाण्ड-छेदन दोष उत्पन्न हो जाता है। जैसे-
प्रभु प्रलाप सुनिकान , विकल भए वानर सकल।
आय गये हनुमान जिमि करुना महॅं वीर रस।।
इस उदाहरण में क्यों लक्ष्मण को मेघनाथ मूर्छित कर देता है तो सभी वानर भालू तथा भगवान राम सुख में डूब जाते हैं परंतु जब हनुमान जी संजीवनी बूटी लेकर वहां आते हैं तो करुण रस का विरोधी रस वीर रस की उत्पत्ति हो जाती है अत: यहां अकाण्ड छेदन दोष है।
परिपन्थि रसांग परिग्रह दोष- जब एक रस का वर्णन करने के बाद कवि उस रस की विरोधी बात कहने लगी तो वहां परिपन्थि रसांग परिग्रह दोष होता है। जैसे-
इस पार प्रिये तुम हो, मधु है,
उस पार न जाने क्या होगा।
यह पंक्ति हरिवंश राय बच्चन की है इसकी प्रथम पंक्ति में श्रृंगार रस का वर्णन है तथा दूसरी पंक्ति में करुण रस की अभिव्यक्ति होने के कारण परिपन्थि रसांग परिग्रह दोष है।
प्रकृति विपर्यय दोष- काव्य में जब आश्रय की प्रकृति अर्थात स्वभाव के वितरित रस का वर्णन किया जाए तो वहां प्रकृति विपर्यय दोष होता है। जैसे-
कंकन किंकिनि धुनि-सुनि,इस उदाहरण में राम के मर्यादा पुरुषोत्तम स्वभाव के विपरीत उनमें सीता को जनक की पुष्प वाटिका में देखकर उनमें श्रंगार रस की उत्पत्ति का वर्णन प्रकृति-विपर्यय दोष है।
कहत लखन सन राम ह्रदय गुनि।
मानहुॅं मदन दुन्दुभी दीन्हीं,
मनासा विश्व विजय करि लीन्हीं।
अस कहि फिरि चितये तेहि ओरा,
सिय मुख ससि भए नयन चकोरा।
भए विलोचन चारु अचंचल,
मनहुॅं सकुचि निमि तजेहु दृगंचल।
देखि सीय सोभा सुखद पावा,
हृदय सराहत वचनु न आवा।
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