काव्य गुण की परिभाषा-
गुण का सामान्य अर्थ श्रेष्ठता विशेषता अच्छाई आदि है परंतु काव्य में आचार्य ने गुणों की परिभाषा अनेक प्रकार से दी है कुछ प्रमुख आचार्यों के गुण संबंधी परिभाषाएं इस प्रकार हैं।
आचार्य वामन के अनुसार इन्होंने काव्य की शोभा के विधायक धर्म को गुण माना है।
आचार्य आनंद वर्धन के अनुसार इन्होंने रस के आश्रित तत्वों को गुण के रूप में परिभाषित किया है।
आचार्य भरत मुनि ने काव्य में दोषों के अभाव को गुण माना है।
आचार्य मम्मट ने पहली बार गुणों के विषय में स्पष्ट रूप से समझ में आने वाली बात लिखी है
ये रसस्यांगिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मना।
उत्कर्ष हेतवस्ते स्युः अचल स्थितयो गुणाः।।
अर्थात जिस प्रकार सॉरी शौर्य आदि आत्मा के धर्म होते हैं उसी प्रकार गुण रस के अंग होते हैं गुणों की स्थिति नित्य रहती है एवं वे रस के उत्कर्ष का कारण बनते हैं।
इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्य आदि आत्मा के गुण होते हैं शरीर के नहीं उसी प्रकार काव्य गुण उसके धर्म हैं शब्द और अर्थ के नहीं।
डॉ नगेंद्र ने गुणों के विषय में अपना मत स्पष्ट करते हुए कहा है कि मूलत: रस के साथ संबंध होते हुए भी गुण शब्दार्थ से भिन्न नहीं हैं। उन्हें रस का धर्म तो मानना ही चाहिए परंतु साथ ही शब्दार्थ के धर्म मानने में कोई आपत्ति नहीं करनी चाहिए।
डॉ देवी शरण रस्तोगी-काव्योत्कर्ष के साधक ऐसे तत्वों को गुण मानते हैं जो मुख्यतः इसकी और गॉड रूप से शब्द तथा अर्थ के नित्य धर्म है। इसका धर्म होने के कारण यह चित्तवृत्ति स्वरूप हैं। और वर्ण गुम्फ तथा शब्द गुम्फ का आधार ग्रहण करने के कारण इन्हें शब्द और अर्थ का धर्म माना जाता है।
काव्य गुण के भेद-
गुणों की संख्या के संबंध में विभिन्न आचार्यों की अलग-अलग राय है भरतमुनि ने काव्य गुणों की संख्या दस मानी है तो आचार्य भामह ने तीन, अग्नि पुराण के रचनाकार काव्य गुणों की संख्या सोलह मानते हैं मम्मट ने इनकी संख्या तीन मानी है रीतिकाल के आचार्य चिंतामणि और कुलपति मिश्र गुणों की संख्या 3 ही मानते हैं इनके अनुसार काव्य के निम्न तीन गुण हैं प्रसाद गुण, ओज गुण, तथा माधुर्य गुण।
प्रसाद गुण की परिभाषा-
प्रसाद गुण-साहित्य दर्पण के रचनाकार आचार्य विश्वनाथ ने प्रसाद गुण का लक्षण बताते हुए अपने साहित्य दर्पण में स्पष्ट किया है
चितं व्याप्नोति य: क्षिप्रऺ शुष्केन्धन मिवानलः।
सः प्रसादः समस्तेषु रसेषु रचनासु च।।
किस प्रकार सूखे इंधन में अग्नि तुरंत व्याप्त हो जाती है ठीक उसी प्रकार जो गुण रस और काव्य रचनाओं में पाठक या सहृदय का चित्त तुरंत व्याप्त कर दे उसे प्रसाद गुण कहते हैं।
आचार्य मम्मट ने प्रसाद गुण की परिभाषा देते हुए इस प्रकार लिखा है कि जिस प्रकार सूखे इंजन में अग्नि के समान तथा वस्त्र में स्वच्छ जल के समान चित्त की सहसा व्याप्ति का नाम प्रसाद गुण है तथा प्रसाद गुण की स्थिति काव्य के सभी रसों में पाई जाती है।
उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है काव्य की जिन रचनाओं को पढ़कर उनका अर्थ और भाव आसानी से समझ में आ जाए वहां प्रसाद गुण की स्थिति होती है।
प्रसाद गुण के उदाहरण-
वह आता मुंह फटी जूली पुरानी को फैलाता,
दो टूक कलेजे के करता,
पछतावा पत्थर पर आता,
उपरोक्त उदाहरण में निराला जी में एक अंधे बूढ़े भिखारी का वर्णन किया है। जिसका अर्थ आसानी से समझ में आ जाता है। यहां करुण रस की निष्पत्ति होती है और यहां प्रसाद गुण है।
इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण द्वारा और समझते हैं।
उठो हिंदुओं अपने बल को पहचानो।
दशा हिंदी भाषा की कुछ देखो-भालो।
जमाने के धक्कों से इस को बचा लो।
सपूत ही दिखा दो झपट कर उठा लो।
सहित प्रेम छाती से उनको लगा लो।
हृदय के सिंहासन पर उनको बैठा लो।
माधुर्य गुण के लक्षण-
माधुर्य गुण-माधवगढ़ का लक्षण बताते हुए साहित्य दर्पण के रचयिता आचार्य विश्वनाथ ने लिखा है कि-
आह्लायकत्वम् माधुर्यं श्रंगारे द्रुति कारणम्।
करुणे विप्रलम्भे तत् शान्ते चातिक्षयान्चितम्।।
आह्लाद अर्थात चित्तद्रुति विशेष का नाम ही माधुर्य गुण होता है इसके द्वारा श्रंगार करूर तथा शांत रस में चित्तद्रुति अर्थात विशेष आनंद की अनुभूति होती है।
विप्रलंभ अर्थात वियोग श्रृंगार रस में माधुर्य की अधिकता होती है।
इसका तात्पर्य यह है कि यहां काव्य में कोमल वर्णों का प्रयोग होता है वहां माधुर्य गुण की स्थिति होती है। इसका संबंध श्रंगार रस करुण रस तथा शांत रस से है। वियोग श्रृंगार में करुण रस सहृदय के चित्त को अधिक आनंद प्रदान करता है।
जैसे-
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सोऺह करे, भौंहनि हऺसे, देन कहे नट जाए।।
अन्य उदाहरण
दूरि ज दुराई सेनापति सुखदाई देखो,
आई रितु पाऊं नापा रे प्रेम पतियां।
धीर जल धर की सुनत धुनि धरकी,
दरकीं सुहागिनि की छोह भरी छातियॉं।
आई सुधि बर की हिये में जानि खड़की तू,
मेरी प्रान प्यार यह पीतम की बतियॉं।
बीती ऑंधि आवन की, लाल मन भावन की।
डग भई बावन की सावन की रतियॉं।
यहां सावन के महीने में किसी योगिनी का वर्णन होने से वियोग श्रृंगार रस है और कवि ने अपेक्षाकृत कोमल वर्णों का प्रयोग किया है इस आधार पर यहां माधुर्य गुण है।
ओज गुण का लक्षण और उदाहरण
काव्यप्रकाश के रचयिता आचार्य मम्मट ने ओज गुण का लक्षण बताते हुए लिखा है-
दीप्त्यात्म विस्तृते र्हेतु रोजो वीररस स्थिति:।
वीभत्स रौद्रयो स्तस्याधिक्यं क्रमेण च।
अर्थात चित्र की उद्दीप्त ज्वलन जैसी स्थिति का नाम ओज गुण है वीर रस में इस गुण की स्थिति होती है इसके अतिरिक्त वीभत्स तथा रौद्र रस मेक्रम से इसकी अधिकता होती है कुलपति मिश्र ने इस लोक का अनुवाद करने के साथ ही यह भी बता दिया है कि ओज गुणमयी भाषा में किस प्रकार के वर्ण प्रयुक्त होते हैं?
चितहिं बढावै तेज करि ओज वीररस वास,
बहुत रुद्र वीभत्स में जाको बनै निवास,
संजोगी ट ठ ड ढ ण जुत उद्यत बरना रूप,
रेफ जोग जुत बड़े बरनहु अनुज अनूप।
जहां काव्य में संयुक्त वर्णों के साथ ट वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) तथा क वर्ग (क, ख, ग, घ, ङ) का अधिक प्रयोग हो वहां ओज गुण होता है ओज गुण की स्थिति वीर रस, रौद्र रस तथा वीभत्स रसों में होती है।
ओज गुण का उदाहरण-
इन्द्र जिमि जम्भ पर वाड सुअम्भ पर,
रावन सदम्भ पर रघुकूल राज है।
पौन वारिवाह पर सम्भ रति नाह पर,
ज्यौं सहस्त्रबाहु पर राम द्विज राज है।
दावाद्रुम दण्ड पर चीता मृग झुंड पर,
भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं।
तेज तम अंस पर कान्ह जिमिकंस पर,
त्यौं म्लेच्छ बंस पर राम द्विज राज हैं।
उदाहरण में का वर्ग तथा ट वर्ग और संयुक्त वर्णों का प्रयोग वह है और इस उदाहरण में वीर रस की स्थिति है इसलिए यहां ओज गुण है।
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